पतंजलि योगसूत्र (PGDY) 201
पतंजलि योगसूत्र
संक्षिप्त परिचय
पतंजलि योगसूत्र योग दर्शन का एक प्रमुख ग्रंथ है, जिसे महर्षि पतंजलि ने रचा था। यह ग्रंथ योग की गूढ़ शिक्षा को सूत्र रूप में प्रस्तुत करता है, जिससे साधक आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
यह ग्रंथ कुल 195सूत्रों में विभाजित है, जो चार अध्यायों (पादों) में संकलित हैं:
1. समाधि पाद (51 सूत्र) – योग के स्वरूप, चित्त वृत्तियों और समाधि की अवस्थाओं का वर्णन करता है। इसमें योग का मुख्य उद्देश्य आत्म-ज्ञान और ध्यान की गहराई को समझाना है।
2. साधना पाद (55 सूत्र) – योग के अभ्यास की विधियाँ बताई गई हैं, जिसमें अष्टांग योग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि) का वर्णन मिलता है।
3. विभूति पाद (55 सूत्र) – ध्यान और योग साधना से प्राप्त होने वाली विशेष शक्तियों (सिद्धियों) का वर्णन करता है और बताता है कि इनका उपयोग साधक को किस प्रकार करना चाहिए।
4. कैवल्य पाद (34 सूत्र) – योग साधना के अंतिम लक्ष्य, मोक्ष (कैवल्य) की स्थिति और आत्म-साक्षात्कार का वर्णन करता है।
पतंजलि योगसूत्र योग दर्शन का आधारभूत ग्रंथ है, जो आत्म-विकास और आंतरिक शांति की ओर मार्गदर्शन करता है।
पतंजलि योगसूत्र – अर्थ, परिभाषा और उद्देश्य
1. योगसूत्र का अर्थ (Meaning of Yoga Sutra)
योगसूत्र दो शब्दों से मिलकर बना है:
· योग – जिसका अर्थ है संबंध जोड़ना या एकता (शरीर, मन और आत्मा की एकता)।
· सूत्र – जिसका अर्थ है संक्षिप्त लेकिन गहन अर्थपूर्ण वाक्य।
अतः योगसूत्र का अर्थ हुआ – योग का वह संक्षिप्त ग्रंथ, जो आत्मिक उन्नति और मोक्ष प्राप्ति का मार्गदर्शन देता है।
2. योगसूत्र की परिभाषा (Definition of Yoga Sutra)
पतंजलि ने योगसूत्र में योग को परिभाषित किया है:
"योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः॥" (योगसूत्र 1.2)
अर्थ: योग चित्त (मन) की वृत्तियों (अस्थिरता/चंचलता) के निरोध (नियंत्रण) का नाम है।
अर्थात, जब मन की चंचलता समाप्त हो जाती है, तब व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप (आत्मा) को पहचान सकता है।
3. योगसूत्र का उद्देश्य (Aim of Yoga Sutra)
पतंजलि योगसूत्र का मुख्य उद्देश्य आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्ति का मार्गदर्शन करना है। इसके प्रमुख उद्देश्यों में शामिल हैं:
1. मन को नियंत्रित करना – चित्त की वृत्तियों को शांत करके मानसिक स्थिरता प्राप्त करना।
2. आध्यात्मिक उन्नति – आत्मज्ञान प्राप्त कर जीवन के अंतिम लक्ष्य (मोक्ष) को प्राप्त करना।
3. अष्टांग योग का अभ्यास – नैतिक, शारीरिक और मानसिक शुद्धि के लिए यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का अभ्यास करना।
4. सुख और शांति प्राप्त करना – जीवन में संतुलन और आनंद लाने के लिए योग का व्यावहारिक उपयोग करना।
पतंजलि योगसूत्र न केवल आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग दिखाता है, बल्कि मानसिक शांति और आत्म-साक्षात्कार की ओर भी ले जाता है।
द्रष्टा का स्वरूप (The Nature of the Seer in Its Pure State)
पतंजलि योगसूत्र में "द्रष्टा" (Seer) या "पुरुष" (Pure Consciousness) के वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। योग दर्शन के अनुसार, द्रष्टा स्वयं चेतन, शुद्ध और अपरिवर्तनीय होता है, लेकिन वह प्रकृति (प्रकृति के गुणों – सत्त्व, रज, तम) के साथ तादात्म्य करके स्वयं को भौतिक संसार से जोड़ लेता है।
पतंजलि योगसूत्र में द्रष्टा का वर्णन
1. द्रष्टा का स्वरूप
"तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्॥" (योगसूत्र 1.3)
अर्थ: जब चित्त की वृत्तियों का निरोध हो जाता है, तब द्रष्टा अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो जाता है।
इसका अर्थ है कि जब मन की चंचलता समाप्त हो जाती है, तो व्यक्ति अपनी सच्ची पहचान, जो शुद्ध चेतना (Pure Consciousness) है, को जान पाता है।
2. द्रष्टा और चित्त की भूमिका
"द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः॥" (योगसूत्र 2.20)
अर्थ: द्रष्टा मात्र साक्षी है, वह शुद्ध है, लेकिन जब तक चित्त में वृत्तियाँ रहती हैं, तब तक वह उनमें प्रतिबिंबित होता रहता है।
यह सूत्र स्पष्ट करता है कि द्रष्टा (आत्मा) स्वयं शुद्ध और निर्लिप्त होता है, लेकिन मन और इंद्रियों के कारण वह बाह्य वस्तुओं में फंस जाता है। जब योग द्वारा चित्त को शांत किया जाता है, तब द्रष्टा अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो जाता है।
3. कैवल्य और द्रष्टा की स्वतंत्रता
"कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरेति॥" (योगसूत्र 4.34)
अर्थ: जब आत्मा (द्रष्टा) प्रकृति से पूर्ण रूप से अलग हो जाता है, तब वह अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित होकर स्वतंत्र (कैवल्य) हो जाता है।
· द्रष्टा (Seer) शुद्ध, अविकारी और साक्षी मात्र होता है।
· जब चित्त शांत और वृत्ति-रहित हो जाता है, तब द्रष्टा अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो जाता है।
· योग साधना का मुख्य उद्देश्य द्रष्टा को उसके शुद्ध स्वरूप में स्थित करना है, जिससे आत्मा और प्रकृति के बीच का भेद स्पष्ट हो जाता है और मोक्ष (कैवल्य) प्राप्त होता है।
चित्त, चित्तभूमि और चित्तवृत्तियाँ – पतंजलि योगसूत्र के अनुसार
पतंजलि योगसूत्र में चित्त, चित्तभूमि और चित्तवृत्तियों का विस्तृत वर्णन किया गया है। योग साधना का मुख्य उद्देश्य चित्त को नियंत्रित करके आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करना है।
1. चित्त (Chitta) का अर्थ
चित्त क्या है?
पतंजलि योगसूत्र में चित्त को मन (मनस), बुद्धि (बुद्धि) और अहंकार (अहंकार) का संयुक्त रूप माना गया है। यह संचित संस्कारों (स्मृतियों) और विचारों का आधार है।
"योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः॥" (योगसूत्र 1.2)
अर्थ: योग चित्त की वृत्तियों के निरोध (नियंत्रण) का नाम है।
चित्त का कार्य ज्ञान को ग्रहण करना, उसे संग्रहीत करना और आवश्यकता पड़ने पर उसका उपयोग करना है।
2. चित्तभूमियाँ (Chitta-Bhumis) – चित्त की अवस्थाएँ
पतंजलि के अनुसार, चित्त पाँच अवस्थाओं (भूमियों) में कार्य करता है। इन अवस्थाओं को चित्तभूमि कहा जाता है:
1. क्षिप्त (Kshipta - Distracted Mind)
· यह चित्त की सबसे अशांत अवस्था है, जहाँ मन हमेशा इधर-उधर भटकता रहता है।
· यह अनियंत्रित और बाहरी वस्तुओं की ओर आकर्षित रहता है।
· इस अवस्था में व्यक्ति को ध्यान या योग साधना करना कठिन होता है।
2. मूढ़ (Mudha - Dull or Ignorant Mind)
· इस अवस्था में चित्त जड़ता, आलस्य और अज्ञान से भरा होता है।
· यह तमोगुण प्रधान अवस्था होती है, जिसमें व्यक्ति निष्क्रिय और भ्रमित रहता है।
3. विक्षिप्त (Vikshipta - Partially Focused Mind)
· इस अवस्था में चित्त कभी-कभी स्थिर रहता है और कभी-कभी भटक जाता है।
· यह सत्त्वगुण प्रधान अवस्था होती है, लेकिन अभी भी पूर्ण ध्यान या समाधि प्राप्त नहीं होती।
4. एकाग्र (Ekagra - Focused Mind)
· इस अवस्था में चित्त एक ही विषय पर स्थिर रहता है।
· ध्यान और धारणा में सफलता प्राप्त करने के लिए यह अवस्था आवश्यक होती है।
5. निरुद्ध (Niruddha - Controlled Mind)
· यह योग की अंतिम अवस्था है, जहाँ चित्त की सभी वृत्तियाँ नियंत्रित हो जाती हैं।
· इस अवस्था में व्यक्ति समाधि में प्रवेश करता है और आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करता है।
3. चित्तवृत्तियाँ (Chitta-Vrittis) – चित्त की गतियाँ
पतंजलि के अनुसार, चित्त पाँच प्रकार की वृत्तियों (मनों की चंचलताएँ) से प्रभावित होता है।
"प्रमाण विपर्यय विकल्प निद्रा स्मृतयः॥" (योगसूत्र 1.6)
अर्थ: चित्त की पाँच वृत्तियाँ होती हैं – प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति।
1. प्रमाण (Pramana - Correct Knowledge)
चित्त का वह रूप जिसमें सही ज्ञान प्राप्त होता है। इसके तीन प्रकार हैं:
· प्रत्यक्ष (Perception) – इंद्रियों के माध्यम से सीधा ज्ञान।
· अनुमान (Inference) – तर्क के माध्यम से प्राप्त ज्ञान।
· आगम (Testimony) – शास्त्रों और विद्वानों के कथनों पर आधारित ज्ञान।
2. विपर्यय (Viparyaya - False Knowledge)
जब चित्त भ्रमित होकर असत्य को सत्य मान लेता है, तो यह विपर्यय वृत्ति कहलाती है।
· उदाहरण: किसी रस्सी को साँप समझ लेना।
3. विकल्प (Vikalpa - Imagination or Delusion)
जब चित्त किसी काल्पनिक वस्तु की धारणा बना लेता है, तो यह विकल्प वृत्ति कहलाती है।
· उदाहरण: स्वप्न में काल्पनिक घटनाओं का अनुभव।
4. निद्रा (Nidra - Sleep)
जब चित्त किसी विषय पर केंद्रित नहीं होता और शून्यता में चला जाता है, तो यह निद्रा वृत्ति कहलाती है।
· गहरी निद्रा में व्यक्ति बाह्य जगत से पूर्णत: अलग हो जाता है।
5. स्मृति (Smriti - Memory)
· जब चित्त पूर्व अनुभवों और ज्ञान को संचित करता है और समय आने पर उसे पुनः स्मरण करता है, तो इसे स्मृति वृत्ति कहते हैं।
· यह वृत्ति योग साधना के लिए सहायक भी हो सकती है और बाधक भी।
1. चित्त – मन, बुद्धि और अहंकार का समुच्चय।
2. चित्तभूमि – चित्त की पाँच अवस्थाएँ (क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र, निरुद्ध)।
3. चित्तवृत्तियाँ – चित्त की पाँच गतियाँ (प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा, स्मृति)।
योग साधना का मुख्य उद्देश्य चित्त की वृत्तियों का निरोध करके उसे निरुद्ध अवस्था में पहुँचाना है, जिससे आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्त किया जा सके।
चित्तवृत्ति निरोध के उपाय (Chitta-Vritti Nirodhopaya)
पतंजलि योगसूत्र का मुख्य लक्ष्य "चित्तवृत्ति निरोध" यानी मन की चंचलताओं को नियंत्रित करना है। इसके लिए पतंजलि ने कुछ विशेष उपाय बताए हैं, जिससे चित्त को शांत और स्थिर किया जा सकता है।
"योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः॥" (योगसूत्र 1.2)
अर्थ: योग चित्त की वृत्तियों के निरोध (नियंत्रण) का नाम है।
चित्तवृत्ति निरोध के मुख्य उपाय
1. अभ्यास और वैराग्य (Abhyasa & Vairagya) – नियमित अभ्यास और आसक्ति से मुक्त रहना
"अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः॥" (योगसूत्र 1.12)
अर्थ: अभ्यास और वैराग्य के द्वारा चित्तवृत्तियों का निरोध होता है।
अभ्यास (Abhyasa) – चित्त को एक ही लक्ष्य पर केंद्रित करने का सतत प्रयास।
वैराग्य (Vairagya) – इंद्रियों और मन की इच्छाओं से मुक्त होकर आत्मा की ओर उन्मुख होना।
2. अष्टांग योग (Ashtanga Yoga) – योग का आठ अंगों वाला मार्ग
पतंजलि ने अष्टांग योग के माध्यम से चित्त को स्थिर करने का मार्ग बताया है:
यम (Yama) – नैतिक आचरण (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह)।
नियम (Niyama) – आत्म-अनुशासन (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान)।
आसन (Asana) – स्थिर और सुखद शारीरिक स्थिति।
प्राणायाम (Pranayama) – श्वास-प्रश्वास का नियंत्रण।
प्रत्याहार (Pratyahara) – इंद्रियों का मन से संकोच।
धारणा (Dharana) – मन को एक बिंदु पर स्थिर करना।
ध्यान (Dhyana) – ध्यान की निरंतर अवस्था।
समाधि (Samadhi) – आत्मा में पूर्ण लय, जिससे मोक्ष प्राप्त होता है।
3. ईश्वर प्राणिधान (Ishwar Pranidhana) – ईश्वर में समर्पण
"ईश्वरप्रणिधानाद्वा॥" (योगसूत्र 1.23)
अर्थ: ईश्वर में पूर्ण समर्पण से भी चित्तवृत्तियों का निरोध हो सकता है।
जब साधक अपने अहंकार को छोड़कर ईश्वर को समर्पित कर देता है, तब चित्त की चंचलता समाप्त हो जाती है।
4. चित्त की शुद्धि के पाँच उपाय (Chitta Shuddhi Ke Panch Upaya)
"मैत्री करुणा मुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातः चित्तप्रसादनम्॥" (योगसूत्र 1.33)
अर्थ: मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा के भावों को विकसित करने से चित्त शुद्ध होता है।
मैत्री (Maitri) – सभी से मित्रता और प्रेमभाव रखना।
करुणा (Karuna) – दुखी लोगों के प्रति दयाभाव रखना।
मुदिता (Mudita) – दूसरों की खुशी में प्रसन्न होना।
उपेक्षा (Upeksha) – नकारात्मकता को नजरअंदाज करना।
5. मंत्र जप (Mantra Japa) – विशेष रूप से प्रणव (ॐ) का जप
"तज्जपस्तदर्थभावनम्॥" (योगसूत्र 1.28)
अर्थ: ईश्वर के नाम (ॐ) का जप और उसके अर्थ का चिंतन करने से चित्तवृत्ति का निरोध होता है।
प्रणव (ॐ) का जप करने से चित्त शुद्ध और एकाग्र होता है।
6. सत्संग और स्वाध्याय (Satsanga & Swadhyaya) – ज्ञान और साधु संगति
"स्वाध्यायादिष्टदेवता संप्रयोगः॥" (योगसूत्र 2.44)
अर्थ: स्वाध्याय से ईश्वर से संपर्क स्थापित होता है।
धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन और सत्संग से चित्त की चंचलता समाप्त होती है।
चित्तवृत्ति निरोध के लिए पतंजलि ने कई उपाय बताए हैं, जिनमें अभ्यास-वैराग्य, अष्टांग योग, ईश्वर प्राणिधान, चित्त की शुद्धि के चार उपाय, मंत्र जप, स्वाध्याय और सत्संग प्रमुख हैं। जब चित्त इन उपायों के द्वारा नियंत्रित होता है, तब व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
चित्त विक्षेप (Chitta-Vikshepas) – योग के अंतराय (Yoga-Antarayas)
पतंजलि योगसूत्र में योग साधना में आने वाली बाधाओं (अंतराय) का वर्णन किया गया है। इन बाधाओं को चित्त विक्षेप कहा जाता है, जो चित्त की स्थिरता में रुकावट पैदा करते हैं और साधक को ध्यान तथा समाधि प्राप्त करने से रोकते हैं।
"व्याधि-स्त्यान-संशय-प्रमादालस्य-अविरति-भ्रान्तिदर्शन-अलभ्धभूमिकत्व-अनवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः॥" (योगसूत्र 1.30)
अर्थ: योग साधना में नौ प्रकार के विक्षेप (बाधाएँ) होती हैं, जो चित्त को स्थिर नहीं होने देतीं।
नौ चित्त विक्षेप (Nine Chitta Vikshepas)
पतंजलि ने नौ प्रकार के विक्षेप बताए हैं, जो साधना में रुकावट डालते हैं:
1. व्याधि (Vyadhi) – शारीरिक या मानसिक रोग
· जब शरीर या मन अस्वस्थ होता है, तो योग साधना में बाधा आती है।
· उदाहरण: किसी रोग के कारण ध्यान में बैठना कठिन हो जाना।
2. स्त्यान (Styana) – मानसिक जड़ता या उत्साह की कमी
· जब व्यक्ति में योगाभ्यास के प्रति रुचि नहीं रहती या वह आलस्य का शिकार हो जाता है।
· उदाहरण: योग करने की इच्छा का अभाव या निरंतर अभ्यास न करना।
3. संशय (Samshaya) – संदेह या अनिश्चितता
· जब साधक को अपने गुरु, शास्त्रों, या स्वयं की योग यात्रा पर संदेह होने लगता है।
· उदाहरण: "क्या योग से वास्तव में आत्म-साक्षात्कार संभव है?"
4. प्रमाद (Pramada) – लापरवाही या असावधानी
· जब व्यक्ति योग साधना को गंभीरता से नहीं लेता और नियमों का पालन नहीं करता।
· उदाहरण: नियमित योग करने की योजना बनाने के बावजूद अभ्यास में अनुशासन न रखना।
5. आलस्य (Alasya) – शारीरिक और मानसिक आलस्य
· जब साधक योगाभ्यास करने की इच्छा तो रखता है, लेकिन शारीरिक या मानसिक आलस्य के कारण अभ्यास नहीं करता।
· उदाहरण: "आज अभ्यास छोड़ देते हैं, कल से नियमित करेंगे।"
6. अविरति (Avirati) – इंद्रियों पर नियंत्रण न होना
· जब साधक इंद्रिय-भोगों में लिप्त रहता है और योग साधना से दूर हो जाता है।
· उदाहरण: सांसारिक सुख-सुविधाओं की ओर अत्यधिक आकर्षण।
7. भ्रांति दर्शन (Bhranti Darshana) – गलत या भ्रमित करने वाला ज्ञान
· जब व्यक्ति को योग के मार्ग पर भ्रमित करने वाला ज्ञान या सिद्धांत मिलते हैं।
· उदाहरण: योग को सिर्फ शारीरिक व्यायाम मान लेना और आध्यात्मिक पक्ष की उपेक्षा करना।
8. अलभ्धभूमिकत्व (Alabdha Bhoomikatva) – योग की उच्च अवस्था प्राप्त न कर पाना
· जब साधक लगातार अभ्यास करने के बाद भी ध्यान या समाधि की उच्च अवस्था को प्राप्त नहीं कर पाता और निराश हो जाता है।
· उदाहरण: वर्षों के अभ्यास के बाद भी ध्यान में स्थिर न रह पाना।
9. अनवस्थितत्व (Anavasthitatva) – योग की अवस्था प्राप्त करने के बाद स्थिर न रह पाना
· जब साधक ध्यान या समाधि की अवस्था तो प्राप्त कर लेता है, लेकिन उसमें स्थिर नहीं रह पाता।
· उदाहरण: ध्यान में गहराई प्राप्त करने के बावजूद कुछ समय बाद भटक जाना।
चित्त विक्षेपों के परिणाम
पतंजलि ने कहा है कि ये विक्षेप साधक को योगमार्ग से भटका सकते हैं। इनके प्रभाव से मन में:
1. दुःख (Dukha) – मानसिक और शारीरिक कष्ट।
2. दौर्मनस्य (Daurmanasya) – निराशा और चिंता।
3. अंगमेजयत्व (Angamejayatva) – शरीर में अस्थिरता और कंपन।
4. श्वास-प्रश्वास विक्षेप (Shvasa-Prashvasa Vikṣepa) – अनियमित श्वास-प्रश्वास।
"दुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः॥" (योगसूत्र 1.31)
चित्त विक्षेपों को दूर करने के उपाय (Solutions to Chitta Vikshepas)
1. एकतत्त्व अभ्यास (Ekattva Abhyasa) – किसी एक तत्त्व पर ध्यान केंद्रित करना
"तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः॥" (योगसूत्र 1.32)
अर्थ: चित्त विक्षेपों को दूर करने के लिए किसी एक तत्त्व (ध्यान के विषय) का अभ्यास करना चाहिए।
· किसी मंत्र (जैसे ॐ), श्वास, या किसी ईश्वरीय तत्व पर ध्यान केंद्रित करना।
2. मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा (Maitri, Karuna, Mudita, Upeksha) – चित्त को शुद्ध करने के उपाय
"मैत्री करुणा मुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातः चित्तप्रसादनम्॥" (योगसूत्र 1.33)
अर्थ: मित्रता, करुणा, हर्ष और उपेक्षा का भाव रखने से चित्त प्रसन्न और शांत होता है।
· मैत्री (Maitri) – सभी के प्रति प्रेमभाव रखना।
· करुणा (Karuna) – दुखियों के प्रति दया रखना।
· मुदिता (Mudita) – दूसरों की खुशी में आनंद लेना।
· उपेक्षा (Upeksha) – नकारात्मक विचारों और परिस्थितियों की उपेक्षा करना।
3. प्राणायाम और ध्यान (Pranayama & Dhyana)
· नियमित प्राणायाम करने से चित्त शांत होता है और विक्षेप समाप्त होते हैं।
· ध्यान द्वारा मन को स्थिर करके विक्षेपों को रोका जा सकता है।
4. ईश्वर प्राणिधान (Ishwar Pranidhana) – ईश्वर में समर्पण
"ईश्वरप्रणिधानाद्वा॥" (योगसूत्र 1.23)
अर्थ: ईश्वर के प्रति समर्पण से चित्त की चंचलता समाप्त हो जाती है।
· यदि साधक योग की कठिनाइयों से जूझ रहा है, तो उसे अपने अहंकार को छोड़कर ईश्वर की शरण में जाना चाहिए।
चित्त विक्षेप (बाधाएँ)
· 9 प्रकार के चित्त विक्षेप योग साधना में रुकावट डालते हैं।
· इनके कारण दुःख, निराशा, शरीर में कंपन और श्वास में अस्थिरता होती है।
उपाय
· एकतत्त्व अभ्यास
· मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा
· प्राणायाम और ध्यान
· ईश्वर प्राणिधान
यदि साधक इन उपायों का पालन करता है, तो चित्त शांत होकर ध्यान और समाधि में स्थिर हो सकता है।
Unit-II: PYS- Concept & Application-I
चित्त प्रसादन (Chitta Prasadanam) के उपाय
पतंजलि योगसूत्र में चित्त प्रसादन का अर्थ मन की शुद्धि, शांति और स्थिरता से है। जब मन प्रसन्न और शांत होता है, तो ध्यान, समाधि और आत्मज्ञान प्राप्त करना सरल हो जाता है। योगसूत्र (1.33) में चित्त को प्रसन्न और स्थिर करने के लिए चार प्रमुख उपाय बताए गए हैं:
1. मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा (Maitri, Karuna, Mudita, Upeksha)
"मैत्री करुणा मुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातः चित्तप्रसादनम्॥"
(योगसूत्र 1.33)
अर्थ: चित्त को प्रसन्न करने के लिए मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा का अभ्यास करें।
(i) मैत्री (Maitri) – मित्रता और प्रेमभाव
· सभी के प्रति स्नेह और मित्रता का भाव रखें।
· ईर्ष्या और द्वेष को त्यागें।
· इससे चित्त में सकारात्मकता और प्रसन्नता आती है।
(ii) करुणा (Karuna) – दया और सहानुभूति
· दुखी लोगों के प्रति दया और सहानुभूति का भाव रखें।
· किसी के दुख को देखकर क्रोध या उपेक्षा न करें, बल्कि मदद का प्रयास करें।
· इससे चित्त शुद्ध और शांत होता है।
(iii) मुदिता (Mudita) – दूसरों की खुशी में आनंद
· किसी के सुखी होने पर प्रसन्नता महसूस करें।
· दूसरों की सफलता से ईर्ष्या न करें, बल्कि उनकी उपलब्धियों को अपना प्रेरणा स्रोत बनाएं।
· इससे अहंकार और नकारात्मक भावनाएं समाप्त होती हैं।
(iv) उपेक्षा (Upeksha) – गलत कार्यों की अनदेखी
· दूसरों के असत्कर्मों और बुरी आदतों को लेकर अत्यधिक परेशान न हों।
· बिना क्रोध किए नकारात्मक विचारों से स्वयं को दूर रखें।
· इससे चित्त शांत और संतुलित रहता है।
2. प्राणायाम और ध्यान (Pranayama & Dhyana)
"प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य॥"
(योगसूत्र 1.34)
अर्थ: प्राणायाम द्वारा चित्त को प्रसन्न किया जा सकता है।
·
· अनुलोम-विलोम, भ्रामरी, नाड़ी शोधन प्राणायाम से चित्त की अशुद्धियाँ दूर होती हैं।
· ध्यान (Meditation) से मन की चंचलता कम होती है और प्रसन्नता आती है।
3. इन्द्रियों का संयम और सत्संग (Sense Control & Good Company)
"सत्संगत्वे निस्संगत्वम्॥" (पतनजलि से प्रेरित सिद्धांत)
· अच्छे विचारों और सकारात्मक लोगों के संपर्क में रहें।
· बुरे विचारों, असंतोष और नकारात्मकता से बचें।
· इंद्रियों को संयमित रखें और अति-भोग से बचें।
4. ईश्वर प्राणिधान (Ishwar Pranidhana) – ईश्वर में समर्पण
"ईश्वरप्रणिधानाद्वा॥" (योगसूत्र 1.23)
· ईश्वर की भक्ति और ध्यान से चित्त की अशुद्धियाँ समाप्त होती हैं।
· कठिनाइयों को ईश्वर की इच्छा मानकर उनका समाधान शांतिपूर्वक खोजें।
🔹 निष्कर्ष (Conclusion)
चित्त को प्रसन्न और शांत करने के लिए:
✅ मैत्री (मित्रता), करुणा (दया), मुदिता (आनंद), उपेक्षा (संतुलन) अपनाएं।
✅ प्राणायाम और ध्यान का अभ्यास करें।
✅ अच्छे विचारों और संगति में रहें।
✅ ईश्वर में समर्पण करें।
यदि साधक इन उपायों का पालन करता है, तो चित्त शांत, स्थिर और आनंदमय हो जाएगा, जिससे योग साधना में सफलता प्राप्त होगी। 🙏
कर्म सिद्धांत (Karma Siddhanta)
परिचय (Introduction)
कर्म सिद्धांत भारतीय दर्शन की एक महत्वपूर्ण संकल्पना है, जो यह दर्शाती है कि प्रत्येक जीव अपने कर्मों के अनुसार फल भोगता है। यह सिद्धांत वेदों, उपनिषदों, भगवद गीता, योग दर्शन, जैन दर्शन और बौद्ध दर्शन में विशेष रूप से वर्णित है।
पतंजलि योगसूत्र (Patanjali Yoga Sutras) में भी कर्म सिद्धांत को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसमें कहा गया है कि हमारे वर्तमान और भूतकालीन कर्म हमारी भविष्य की स्थिति को निर्धारित करते हैं।
"सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः॥" (योगसूत्र 2.13)
अर्थ: जब तक कर्म का मूल (बीज) विद्यमान है, तब तक उसके फलस्वरूप जन्म, आयु और भोग प्राप्त होते हैं।
1. कर्म के प्रकार (Types of Karma)
भारतीय दर्शन में कर्म को मुख्य रूप से तीन भागों में विभाजित किया गया है:
(i) संचित कर्म (Sanchita Karma) – संचित किए गए कर्म
· ये वे कर्म हैं, जो पिछले जन्मों में किए गए हैं और अभी तक उनके फल प्राप्त नहीं हुए हैं।
· यह एक प्रकार का कर्म भंडार (Karmic Storage) है, जो व्यक्ति के अगले जन्मों को प्रभावित करता है।
(ii) प्रारब्ध कर्म (Prarabdha Karma) – प्रारब्ध में भोगने योग्य कर्म
· वे कर्म जो पहले किए गए थे और अब उनके फल को इस जन्म में भोगना पड़ रहा है।
· इसे भाग्य (Destiny) भी कहा जाता है।
· प्रारब्ध कर्म को इस जन्म में टाला नहीं जा सकता।
"प्रारब्धं भाग्यं इत्युच्यते।" (शास्त्रों से)
अर्थ: प्रारब्ध कर्म को ही भाग्य कहा जाता है।
(iii) क्रियमाण कर्म (Kriyamana Karma) – वर्तमान में किए जा रहे कर्म
· जो कर्म हम अभी कर रहे हैं, वे भविष्य को प्रभावित करते हैं।
· इसे आगामी कर्म भी कहा जाता है क्योंकि इसका फल भविष्य में मिलेगा।
· वर्तमान का कर्म ही अगले जन्म में प्रारब्ध बनेगा।
2. कर्म के सिद्धांत (Principles of Karma)
1. कारण और प्रभाव का सिद्धांत (Law of Cause and Effect)
· प्रत्येक कर्म का एक प्रभाव होता है।
· यदि कोई अच्छा कर्म करता है, तो उसे अच्छा फल मिलता है और यदि बुरा कर्म करता है, तो बुरा फल मिलता है।
· यह सिद्धांत "जैसा कर्म, वैसा फल" के रूप में जाना जाता है।
2. कर्म अनिवार्य है (Karma is Inevitable)
· प्रत्येक व्यक्ति को कर्म करना ही पड़ता है।
· भगवद गीता (3.5) में कहा गया है:
"न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।"
अर्थ: कोई भी व्यक्ति क्षणभर के लिए भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता।
3. कर्म स्वतंत्र है, लेकिन फल अनिवार्य है (You Have Free Will to Act, but the Results Are Inevitable)
· व्यक्ति अपने कर्म चुन सकता है, लेकिन उसका परिणाम उसकी इच्छा के अनुसार नहीं होता।
· यह सिद्धांत "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" (गीता 2.47) पर आधारित है।
· अर्थ: कर्म करने का अधिकार है, लेकिन फल पर नियंत्रण नहीं।
4. कर्म से मोक्ष प्राप्ति (Liberation through Karma)
· यदि व्यक्ति निष्काम कर्म (स्वार्थ रहित कर्म) करता है, तो वह बंधन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
· योग दर्शन के अनुसार, कर्मफल से बचने के लिए कर्म को ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिए।
3. योग दर्शन में कर्म सिद्धांत (Karma Siddhanta in Yoga Darshan)
(i) क्लेश और कर्म का संबंध (Relation of Kleshas and Karma)
"क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः॥" (योगसूत्र 2.12)
अर्थ: क्लेश (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश) ही कर्मों का मूल हैं और ये वर्तमान तथा भविष्य के जन्मों में फल देने वाले होते हैं।
· जब कोई व्यक्ति राग (आसक्ति) और द्वेष (घृणा) के साथ कर्म करता है, तो वह कर्मबंधन में बंध जाता है।
· योग साधना से इन क्लेशों को नष्ट कर कर्मों के प्रभाव से मुक्त हुआ जा सकता है।
(ii) योग और कर्मफल से मुक्ति (Liberation from Karma through Yoga)
पतंजलि के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति योग के मार्ग का अनुसरण करता है, तो वह कर्मफल के प्रभाव से मुक्त हो सकता है।
"ते क्लेशा कर्म विपाकाशयैः अपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः॥" (योगसूत्र 1.24)
अर्थ: ईश्वर उन क्लेशों, कर्मों और उनके फलों से मुक्त हैं।
उपाय:
1. कर्म को ईश्वर को अर्पित करना (Ishwar Pranidhana)
2. साक्षी भाव रखना (Be a Witness to Actions)
3. निष्काम कर्म करना (Selfless Action Without Desire for Fruits)
4. कर्म सिद्धांत का आध्यात्मिक महत्व (Spiritual Significance of Karma Siddhanta)
· व्यक्ति अपने कर्मों के लिए स्वयं जिम्मेदार होता है।
· भविष्य को सुधारने के लिए वर्तमान में अच्छे कर्म करना आवश्यक है।
· योग द्वारा कर्मों के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।
🔹 निष्कर्ष (Conclusion)
✅ कर्म तीन प्रकार के होते हैं – संचित, प्रारब्ध, क्रियमाण।
✅ कर्म का नियम "जैसा कर्म, वैसा फल" पर आधारित है।
✅ योग साधना से कर्मबंधन से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।
✅ निष्काम कर्म और ईश्वर प्राणिधान से मोक्ष संभव है।
"योगः कर्मसु कौशलम्॥" (गीता 2.50)
अर्थ: योग, कर्म करने की कुशलता है।
🙏 इसलिए, अच्छे कर्म करें, योग अपनाएं और आत्मज्ञान प्राप्त करें। 🚩
क्रिया योग (Kriya Yoga) – पतंजलि योगसूत्र के अनुसार
परिचय (Introduction)
पतंजलि योगसूत्र (योग दर्शन) में क्रिया योग को आत्मशुद्धि और चित्त की स्थिरता का एक साधन बताया गया है। क्रिया योग को योग की साधना का व्यावहारिक रूप माना जाता है, जो मन, शरीर और आत्मा को शुद्ध करने में सहायक है।
योगसूत्र में क्रिया योग की परिभाषा
"तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः॥" (योगसूत्र 2.1)
अर्थ: *तप (तपस्या), स्वाध्याय (अध्ययन), और ईश्वर प्राणिधान (ईश्वर में समर्पण) – यही क्रिया योग है।
पतंजलि के अनुसार, क्रिया योग में तीन प्रमुख अंग होते हैं:
1. क्रिया योग के तीन अंग (Three Components of Kriya Yoga)
(i) तप (Tapah) – आत्मसंयम और अनुशासन
· तप का अर्थ है शरीर, इंद्रियों और मन का संयम।
· यह सहनशक्ति, आत्मनियंत्रण और मानसिक दृढ़ता विकसित करता है।
· कठिनाइयों को सहन करते हुए साधक अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता है।
· उदाहरण: उपवास, ब्रह्मचर्य, संयमित आहार, साधना में नियमितता।
"कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात् तपसः॥" (योगसूत्र 2.43)
अर्थ: तप के अभ्यास से अशुद्धियों का नाश होता है और शरीर तथा इंद्रियों की सिद्धि प्राप्त होती है।
(ii) स्वाध्याय (Swadhyaya) – आत्मचिंतन और अध्ययन
· स्वाध्याय का अर्थ शास्त्रों, वेदों, उपनिषदों और योग ग्रंथों का अध्ययन करना है।
· इसमें ॐ (प्रणव) का जप और ध्यान भी शामिल है।
· यह आत्मा की पहचान और स्वयं की समझ को विकसित करता है।
· उदाहरण: गीता, उपनिषद, योगसूत्रों का अध्ययन और मनन।
"स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोगः॥" (योगसूत्र 2.44)
अर्थ: स्वाध्याय से ईश्वर का साक्षात्कार होता है।
(iii) ईश्वर प्राणिधान (Ishwar Pranidhana) – समर्पण और भक्ति
· ईश्वर प्राणिधान का अर्थ ईश्वर में पूर्ण समर्पण और विश्वास रखना है।
· इससे अहंकार का नाश होता है और साधक अपने कर्मों का फल ईश्वर को समर्पित कर देता है।
· यह मानसिक शांति और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।
"समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्॥" (योगसूत्र 2.45)
अर्थ: ईश्वर प्राणिधान से समाधि सिद्ध होती है।
2. क्रिया योग का उद्देश्य (Aim of Kriya Yoga)
पतंजलि ने क्रिया योग का मुख्य उद्देश्य क्लेशों (मानसिक बाधाओं) का नाश और समाधि प्राप्ति बताया है।
"समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च॥" (योगसूत्र 2.2)
अर्थ: क्रिया योग का उद्देश्य समाधि की प्राप्ति और क्लेशों का क्षीण करना है।
3. क्रिया योग और क्लेशों का क्षय (Kriya Yoga and Removal of Kleshas)
पतंजलि ने पाँच प्रकार के क्लेश (मानसिक अशुद्धियाँ) बताए हैं, जो योग मार्ग में बाधक हैं। क्रिया योग इन क्लेशों को नष्ट करने में सहायक होता है।
पाँच क्लेश (Five Kleshas) और क्रिया योग द्वारा उनका समाधान
4. क्रिया योग और समाधि (Kriya Yoga and Samadhi)
क्रिया योग का अंतिम लक्ष्य समाधि प्राप्ति है, जिससे आत्मा की शुद्धि होती है और साधक मोक्ष प्राप्त करता है।
"योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः॥" (योगसूत्र 1.2)
अर्थ: योग चित्त की वृत्तियों का निरोध (शुद्धि) है।
5. क्रिया योग का आधुनिक जीवन में महत्व
1. मानसिक तनाव दूर करता है।
2. एकाग्रता और आत्मविश्वास बढ़ाता है।
3. जीवन में अनुशासन और संयम विकसित करता है।
4. अध्यात्मिक उन्नति और आत्मज्ञान की ओर ले जाता है।
🔹 निष्कर्ष (Conclusion)
✅ क्रिया योग के तीन अंग हैं – तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान।
✅ इसका उद्देश्य क्लेशों का नाश और समाधि प्राप्ति है।
✅ यह मानसिक शुद्धि, आत्मसंयम और ईश्वर से जुड़ाव में सहायक है।
✅ आधुनिक जीवन में तनावमुक्ति, एकाग्रता और आत्मविकास के लिए उपयोगी है।
"तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः॥"
तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान – यही क्रिया योग है।
🙏 योग अपनाएं, जीवन को साधें, और आत्मज्ञान प्राप्त करें! 🚩
पंच क्लेश (Pancha Kleshas) – पतंजलि योगसूत्र के अनुसार
🔹 परिचय (Introduction)
पतंजलि योगसूत्र में क्लेशों (Kleshas) का वर्णन किया गया है, जो योग साधना में बाधा उत्पन्न करते हैं और मनुष्य के दुःख का कारण बनते हैं। क्लेश शब्द का अर्थ है "मानसिक और आध्यात्मिक अशुद्धियाँ", जो व्यक्ति के चित्त को अस्थिर करती हैं और उसे आत्मज्ञान से दूर रखती हैं।
📜 पंच क्लेशों का सूत्र
"अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः॥"
(योगसूत्र 2.3)
अर्थ: अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश – ये पाँच क्लेश हैं।
पतंजलि के अनुसार, इन क्लेशों को नष्ट किए बिना मोक्ष प्राप्त नहीं किया जा सकता।
🔹 1. अविद्या (Avidya) – अज्ञान
"अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या॥"
(योगसूत्र 2.5)
अर्थ: अनित्य (नाशवान) को नित्य (शाश्वत), अशुद्ध को शुद्ध, दुःख को सुख और अनात्मा को आत्मा मानना ही अविद्या है।
अविद्या के प्रभाव:
· सत्य को असत्य और असत्य को सत्य मानना।
· नश्वर संसार को स्थायी मानना।
· शरीर और इंद्रियों को आत्मा समझना।
· सुख और शांति को बाहरी वस्तुओं में ढूँढना।
समाधान (Solution)
✅ स्वाध्याय (शास्त्रों का अध्ययन) करें।
✅ ध्यान और आत्मचिंतन से सत्य को पहचानें।
✅ सत्संग और गुरु के मार्गदर्शन में रहें।
🔹 2. अस्मिता (Asmita) – अहंकार
"दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता॥"
(योगसूत्र 2.6)
अर्थ: अहंकार का तात्पर्य है आत्मा और बुद्धि को एक मानना।
अस्मिता के प्रभाव:
· "मैं" और "मेरा" की भावना प्रबल हो जाती है।
· व्यक्ति खुद को शरीर, मन, पद, धन, ज्ञान से जोड़ लेता है।
· द्वेष, प्रतिस्पर्धा और अलगाव की भावना जन्म लेती है।
समाधान (Solution)
✅ ध्यान और ज्ञानयोग द्वारा "अहम्" (अहंकार) को समाप्त करें।
✅ स्वयं को आत्मा के रूप में पहचानें, न कि शरीर या मन के रूप में।
✅ सेवा और परोपकार का अभ्यास करें।
🔹 3. राग (Raga) – आसक्ति
"सुखानुशयी रागः॥"
(योगसूत्र 2.7)
अर्थ: सुख की इच्छा से उत्पन्न होने वाली प्रवृत्ति ही राग (आसक्ति) कहलाती है।
राग के प्रभाव:
· व्यक्ति किसी वस्तु, व्यक्ति, अनुभव से सुख की अपेक्षा करता है।
· इच्छाओं की पूर्ति न होने पर दुःख उत्पन्न होता है।
· भोग की प्रवृत्ति बढ़ती है, जिससे मोह और बंधन जन्म लेते हैं।
समाधान (Solution)
✅ वैराग्य (वितरागता) का अभ्यास करें।
✅ संतोष (संतोषी मनुष्य सदा सुखी) का भाव अपनाएँ।
✅ ध्यान और योग द्वारा इच्छाओं पर नियंत्रण करें।
🔹 4. द्वेष (Dvesha) – घृणा या विरोध
"दुःखानुशयी द्वेषः॥"
(योगसूत्र 2.8)
अर्थ: दुःखद अनुभवों से उत्पन्न होने वाली नकारात्मक प्रवृत्ति द्वेष (घृणा) कहलाती है।
द्वेष के प्रभाव:
· दूसरों के प्रति ईर्ष्या, घृणा, और क्रोध की भावना उत्पन्न होती है।
· व्यक्ति अपने अतीत की नकारात्मक घटनाओं से ग्रस्त रहता है।
· मानसिक अशांति और तनाव बढ़ता है।
समाधान (Solution)
✅ क्षमा और प्रेमभाव विकसित करें।
✅ ध्यान और भक्ति योग से मन को शांत करें।
✅ दूसरों की गलतियों को स्वीकार कर उनसे सीखें।
🔹 5. अभिनिवेश (Abhinivesha) – मृत्यु का भय
"स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः॥"
(योगसूत्र 2.9)
अर्थ: मृत्यु का भय इतना गहरा होता है कि यह ज्ञानी व्यक्ति में भी पाया जाता है।
अभिनिवेश के प्रभाव:
· व्यक्ति मृत्यु को लेकर भयभीत रहता है।
· अनिश्चितता के कारण जीवन में भय और चिंता बनी रहती है।
· भौतिकता में अधिक आसक्ति उत्पन्न होती है।
समाधान (Solution)
✅ ध्यान और आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जानें।
✅ मृत्यु को स्वाभाविक प्रक्रिया समझें।
✅ भक्ति और ईश्वर प्राणिधान से मन को स्थिर करें।
🔹 पंच क्लेशों को कैसे दूर करें? (How to Remove Kleshas?)
पतंजलि ने योग के माध्यम से क्लेशों को नष्ट करने का उपाय बताया है:
1. अभ्यास (Practice) – नियमित योग, ध्यान और साधना करें।
2. वैराग्य (Detachment) – सांसारिक वस्तुओं से अनासक्ति रखें।
3. ज्ञान (Knowledge) – स्वाध्याय और आत्मचिंतन द्वारा सत्य की खोज करें।
4. भक्ति (Devotion) – ईश्वर प्राणिधान से अहंकार और भय को नष्ट करें।
5. संयम (Discipline) – इंद्रियों और मन पर नियंत्रण रखें।
🔹 निष्कर्ष (Conclusion)
✅ अविद्या (अज्ञान) ही सभी क्लेशों की जड़ है।
✅ अस्मिता (अहंकार), राग (आसक्ति), द्वेष (घृणा), और अभिनिवेश (मृत्यु का भय) मनुष्य के दुःख के मूल कारण हैं।
✅ योग, ध्यान, ज्ञान और वैराग्य के माध्यम से इन क्लेशों को समाप्त किया जा सकता है।
"क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः॥" (योगसूत्र 2.12)
अर्थ: क्लेशों के कारण जन्म-जन्मांतर का कर्म संचय होता है, जिसे योग द्वारा समाप्त किया जा सकता है।
🙏 योग अपनाएँ, क्लेशों से मुक्त हों, और आत्मज्ञान प्राप्त करें! 🚩
दुःख (Dukha) का स्वरूप और उसके प्रकार
🔹 परिचय (Introduction)
पतंजलि योगसूत्र और भारतीय दर्शन में दुःख को जीवन का एक अनिवार्य सत्य माना गया है। योग दर्शन का उद्देश्य दुःख का निवारण कर आत्मज्ञान प्राप्त करना है। पतंजलि ने बताया कि अविद्या (अज्ञान) के कारण मनुष्य दुःख में फंसा रहता है, और योग के अभ्यास से इस दुःख से मुक्ति संभव है।
📜 पतंजलि योगसूत्र में दुःख का उल्लेख:
"हेयं दुःखमनागतम्॥" (योगसूत्र 2.16)
अर्थ: आने वाले दुःख को टाला जा सकता है।
👉 इस सूत्र में पतंजलि ने बताया कि योग साधना से भविष्य में आने वाले दुःख को समाप्त किया जा सकता है।
🔹 दुःख के प्रकार (Types of Dukha)
योगशास्त्र और सांख्य दर्शन में दुःख को तीन मुख्य प्रकारों में विभाजित किया गया है, जिन्हें "त्रिविध दुःख" कहा जाता है:
1. आध्यात्मिक दुःख (Adhyatmika Dukha) – आत्म-सम्बंधित दुःख
यह वह दुःख है जो व्यक्ति के शारीरिक या मानसिक कारणों से उत्पन्न होता है। इसे दो भागों में बांटा जाता है:
✅ (i) शारीरिक दुःख (Sharirika Dukha) – शरीर में रोग, चोट, वृद्धावस्था, थकान, भूख-प्यास, जन्म-मृत्यु आदि से उत्पन्न पीड़ा।
✅ (ii) मानसिक दुःख (Manasika Dukha) – क्रोध, ईर्ष्या, चिंता, भय, मोह, शोक, द्वेष आदि मानसिक विकारों से उत्पन्न पीड़ा।
👉 उदाहरण:
· किसी व्यक्ति को असाध्य बीमारी हो जाए।
· मन में निराशा या अकेलापन महसूस हो।
🔹 समाधान (Solution):
✅ योग और ध्यान से मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य को सुधारें।
✅ संतोष और सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाएँ।
2. आधिभौतिक दुःख (Adhibhautika Dukha) – बाहरी कारणों से उत्पन्न दुःख
यह दुःख बाहरी परिस्थितियों, समाज या अन्य जीवों के कारण उत्पन्न होता है। इसे "भौतिक दुःख" भी कहा जाता है।
👉 उदाहरण:
· किसी व्यक्ति का चोरी या धोखाधड़ी का शिकार होना।
· किसी प्रियजन की मृत्यु से उत्पन्न दुःख।
· पशु या कीड़े-मकोड़ों द्वारा काटे जाने से कष्ट।
🔹 समाधान (Solution):
✅ धैर्य और सहनशीलता का विकास करें।
✅ कर्मयोग और निष्काम भाव से कार्य करें।
3. आधिदैविक दुःख (Adhidaivika Dukha) – प्राकृतिक कारणों से उत्पन्न दुःख
यह दुःख उन परिस्थितियों से संबंधित है जो मनुष्य के नियंत्रण से बाहर होती हैं, जैसे प्राकृतिक आपदाएँ, ग्रहों का प्रभाव, भाग्य या दैवीय शक्ति का हस्तक्षेप।
👉 उदाहरण:
· भूकंप, बाढ़, तूफान, महामारी।
· ग्रहों की दशा या कर्मफल के कारण कष्ट।
🔹 समाधान (Solution):
✅ ईश्वर प्राणिधान (भक्ति और समर्पण) द्वारा मन को शांत करें।
✅ जीवन के प्रति समभाव (Equanimity) विकसित करें।
🔹 दुःख का कारण (Causes of Dukha)
पतंजलि ने बताया कि दुःख का मुख्य कारण अविद्या (अज्ञान) है, जिससे मनुष्य आत्मा और शरीर में भेद नहीं कर पाता और सांसारिक वस्तुओं में सुख खोजता है।
"परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखम्॥" (योगसूत्र 2.15)
अर्थ: दुःख के चार प्रमुख कारण हैं:
1. परिणाम दुःख (Parinama Dukha) – अस्थायी वस्तुओं से लगाव।
2. ताप दुःख (Tapa Dukha) – इच्छाओं की पूर्ति न होने पर कष्ट।
3. संस्कार दुःख (Sanskara Dukha) – पिछले कर्मों के प्रभाव से उत्पन्न पीड़ा।
4. गुणवृत्ति विरोध (Guna Vritti Virodha) – प्रकृति के गुणों का संघर्ष, जैसे रजोगुण और तमोगुण का प्रभाव।
🔹 दुःख से मुक्ति (Solution to Dukha)
पतंजलि योगसूत्र में दुःख से मुक्त होने के लिए अष्टांग योग (Eight Limbs of Yoga) और विवेकख्याति (Spiritual Wisdom) का पालन करने की सलाह दी गई है।
योग द्वारा दुःख निवारण के उपाय:
✅ यम और नियम – नैतिक जीवनशैली अपनाएं।
✅ आसन और प्राणायाम – शारीरिक और मानसिक संतुलन बनाएं।
✅ ध्यान (Dhyana) – मानसिक शांति प्राप्त करें।
✅ वैराग्य (Detachment) – सांसारिक वस्तुओं से अनासक्ति रखें।
✅ ईश्वर प्राणिधान (Devotion to God) – विश्वास और समर्पण द्वारा मानसिक शांति प्राप्त करें।
🔹 निष्कर्ष (Conclusion)
👉 दुःख तीन प्रकार के होते हैं – आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक।
👉 दुःख का मूल कारण अविद्या, आसक्ति, अहंकार और इच्छाओं का बंधन है।
👉 योग, ध्यान, भक्ति, वैराग्य और कर्मयोग के माध्यम से दुःख से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।
🚩 "योग अपनाएँ, दुःख से मुक्त हों, और आत्मज्ञान प्राप्त करें!" 🙏
Unit-III: PYS- Concept & Application-II
अष्टांग योग (Eight Limbs of Yoga) – पतंजलि योगसूत्र के अनुसार
🔹 परिचय (Introduction)
पतंजलि योगसूत्र में योग को आत्मसाक्षात्कार और मोक्ष प्राप्ति का साधन बताया गया है। इसमें अष्टांग योग (आठ अंगों वाला योग) को प्रमुख स्थान दिया गया है, जो व्यक्ति को मानसिक, शारीरिक और आत्मिक रूप से विकसित करता है।
"अष्टाङ्गानि योगस्य" (योगसूत्र 2.29)
अर्थ: योग के आठ अंग होते हैं।
🔹 अष्टांग योग के 8 अंग (Eight Limbs of Yoga)
1️⃣ यम (Yama) – सामाजिक अनुशासन
यम वे नियम हैं जो समाज में सही आचरण के लिए आवश्यक हैं। ये पाँच प्रकार के होते हैं:
1. अहिंसा (Ahimsa) – किसी भी जीव को मन, वचन, और कर्म से हानि न पहुँचाना।
2. सत्य (Satya) – सत्य बोलना और ईमानदार रहना।
3. अस्तेय (Asteya) – चोरी न करना, किसी की वस्तु बिना अनुमति न लेना।
4. ब्रह्मचर्य (Brahmacharya) – इंद्रियों पर संयम, विचारों की पवित्रता।
5. अपरिग्रह (Aparigraha) – आवश्यकता से अधिक वस्त्र, धन, संपत्ति आदि का संग्रह न करना।
✅ लाभ: समाज में सद्भावना, प्रेम, और अनुशासन बना रहता है।
2️⃣ नियम (Niyama) – व्यक्तिगत अनुशासन
नियम वे नियम हैं जो स्वयं के शुद्धिकरण के लिए आवश्यक हैं। ये पाँच प्रकार के होते हैं:
1. शौच (Shaucha) – शरीर, मन और विचारों की पवित्रता।
2. संतोष (Santosha) – जो कुछ है उसमें संतुष्ट रहना।
3. तप (Tapas) – आत्मसंयम और धैर्य।
4. स्वाध्याय (Swadhyaya) – शास्त्रों का अध्ययन और आत्ममंथन।
5. ईश्वर प्रणिधान (Ishwar Pranidhana) – ईश्वर में श्रद्धा और समर्पण।
✅ लाभ: आत्मशुद्धि और मानसिक स्थिरता प्राप्त होती है।
3️⃣ आसन (Asana) – शारीरिक स्थिरता
आसन का अर्थ है शरीर को स्थिर और सहज स्थिति में रखना।
"स्थिरसुखमासनम्" (योगसूत्र 2.46)
अर्थ: जो स्थिति स्थिर और आनंददायक हो, वही आसन है।
✅ लाभ: शरीर को स्वस्थ और रोगमुक्त बनाता है, मन को शांत करता है।
4️⃣ प्राणायाम (Pranayama) – श्वास नियंत्रण
प्राणायाम का अर्थ है श्वास-प्रश्वास की गति को नियंत्रित करना।
"तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः" (योगसूत्र 2.49)
अर्थ: श्वास की गति को नियंत्रित करना प्राणायाम है।
✅ लाभ: शरीर में ऊर्जा संतुलित होती है, मानसिक शांति और ध्यान की क्षमता बढ़ती है।
5️⃣ प्रत्याहार (Pratyahara) – इंद्रियों का संयम
प्रत्याहार का अर्थ है इंद्रियों को बाहरी वस्तुओं से हटाकर भीतर की ओर केंद्रित करना।
"स्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इव प्रत्याहारः" (योगसूत्र 2.54)
अर्थ: इंद्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर चित्त को आत्मा की ओर मोड़ना प्रत्याहार है।
✅ लाभ: ध्यान और मानसिक नियंत्रण में सहायक।
6️⃣ धारणा (Dharana) – एकाग्रता
धारणा का अर्थ है मन को एक स्थान पर स्थिर करना।
"देशबन्धश्चित्तस्य धारणा" (योगसूत्र 3.1)
अर्थ: मन को किसी एक बिंदु पर स्थिर करना धारणा है।
✅ लाभ: ध्यान के लिए आवश्यक मानसिक एकाग्रता विकसित होती है।
7️⃣ ध्यान (Dhyana) – ध्यान
ध्यान का अर्थ है लगातार एक ही विषय या वस्तु पर ध्यान केंद्रित करना।
"तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्" (योगसूत्र 3.2)
अर्थ: जब चित्त एक ही बिंदु पर स्थिर हो जाता है, तो उसे ध्यान कहते हैं।
✅ लाभ: मानसिक शांति और आध्यात्मिक जागरण।
8️⃣ समाधि (Samadhi) – आत्मसाक्षात्कार
समाधि योग का अंतिम चरण है, जिसमें साधक अपनी आत्मा और परमात्मा के साथ एकाकार हो जाता है।
"तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः" (योगसूत्र 3.3)
अर्थ: जब चित्त पूर्ण रूप से विषय में विलीन हो जाता है, तो वह समाधि कहलाता है।
✅ लाभ: मोक्ष और आत्मज्ञान प्राप्ति।
🔹 अष्टांग योग का आधुनिक जीवन में महत्व
1. आचार-विचार सुधारता है – यम और नियम से नैतिकता बढ़ती है।
2. शारीरिक स्वास्थ्य सुधारता है – आसन और प्राणायाम से शरीर स्वस्थ रहता है।
3. मानसिक एकाग्रता बढ़ाता है – ध्यान और धारणा से मन मजबूत होता है।
4. तनाव और चिंता कम करता है – योग और ध्यान मानसिक शांति लाते हैं।
5. आध्यात्मिक उन्नति प्रदान करता है – समाधि मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करती है।
🔹 निष्कर्ष (Conclusion)
✅ अष्टांग योग आठ अंगों का समुच्चय है, जो व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक और आत्मिक उत्थान में सहायक होता है।
✅ योग केवल व्यायाम नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला है।
✅ यदि अष्टांग योग का पालन किया जाए, तो दुःखों से मुक्ति और मोक्ष प्राप्ति संभव है।
🚩 "योग अपनाएँ, जीवन को संतुलित करें, और आत्मज्ञान प्राप्त करें!" 🙏
यम-नियम और उनके परिणाम (Yama-Niyama & Its Results)
🔹 परिचय (Introduction)
पतंजलि योगसूत्र में अष्टांग योग का पहला और दूसरा अंग यम (Yama) और नियम (Niyama) हैं। ये दोनों व्यक्ति के नैतिक, मानसिक और आध्यात्मिक उत्थान के लिए आवश्यक हैं।
· यम सामाजिक अनुशासन से जुड़े नियम हैं, जो समाज के साथ हमारे संबंध सुधारते हैं।
· नियम व्यक्तिगत अनुशासन से जुड़े नियम हैं, जो आत्म-संयम और आत्म-विकास में मदद करते हैं।
"यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान समाधयोऽष्टावङ्गानि॥" (योगसूत्र 2.29)
अर्थ: योग के आठ अंग हैं – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
1️⃣ यम (Yama) – सामाजिक अनुशासन
यम पाँच नियमों का समूह है, जो व्यक्ति के समाज के प्रति आचरण को नियंत्रित करता है।
🔹 यम के पालन से प्राप्त लाभ:
✅ नैतिकता और सदाचार में वृद्धि होती है।
✅ समाज में प्रेम, शांति और सद्भावना बनी रहती है।
✅ मन और शरीर में संतुलन और स्थिरता आती है।
✅ मनुष्य अहंकार, ईर्ष्या, और क्रोध से मुक्त होकर आध्यात्मिक विकास की ओर अग्रसर होता है।
2️⃣ नियम (Niyama) – व्यक्तिगत अनुशासन
नियम पाँच व्यक्तिगत नियमों का समूह है, जो आत्मसंयम और आत्म-विकास में सहायक होते हैं।
🔹 नियम के पालन से प्राप्त लाभ:
✅ आत्म-विकास और आत्म-शुद्धि होती है।
✅ मानसिक संतुलन और आध्यात्मिक उन्नति होती है।
✅ आत्मनियंत्रण और धैर्य बढ़ता है।
✅ ईश्वर के प्रति श्रद्धा और विश्वास मजबूत होता है।
🔹 निष्कर्ष (Conclusion)
✅ यम और नियम योग साधना के लिए आधारशिला हैं।
✅ यम सामाजिक जीवन को संतुलित करते हैं, जबकि नियम व्यक्तिगत अनुशासन को सुदृढ़ करते हैं।
✅ इनके अभ्यास से व्यक्ति शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से मजबूत बनता है।
✅ जो व्यक्ति यम-नियम का पालन करता है, वह दुखों से मुक्त होकर आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष की ओर बढ़ता है।
🚩 "यम-नियम को अपनाएँ, जीवन को संतुलित करें और आत्मज्ञान प्राप्त करें!" 🙏
आसन और प्राणायाम एवं उनके प्रभाव (Asana-Pranayama & Its Impact)
🔹 परिचय (Introduction)
पतंजलि योगसूत्र में आसन और प्राणायाम को अष्टांग योग के महत्वपूर्ण अंगों के रूप में वर्णित किया गया है। ये दोनों साधन शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को संतुलित करने में सहायक होते हैं।
· आसन शरीर को स्थिर, स्वस्थ और मजबूत बनाते हैं।
· प्राणायाम श्वास को नियंत्रित करके प्राण शक्ति (Vital Energy) को जागृत करता है।
"स्थिरसुखमासनम्॥" (योगसूत्र 2.46)
अर्थ: आसन वह है, जो स्थिर और सुखद हो।
"तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः॥" (योगसूत्र 2.49)
अर्थ: आसन में स्थिरता आने के बाद श्वास-प्रश्वास को नियंत्रित करना ही प्राणायाम है।
1️⃣ आसन (Asana) – शरीर की स्थिरता और शुद्धि
आसन का अर्थ और परिभाषा
🔹 आसन का अर्थ है "स्थिर और सुखद स्थिति में बैठना"।
🔹 यह शरीर को स्थिर और मन को शांत करने का माध्यम है।
आसन के प्रकार (Types of Asanas)
1. सुखासन (Meditative Postures) – ध्यान और साधना के लिए उपयुक्त।
o पद्मासन, सिद्धासन, वज्रासन, सुखासन।
2. शिथिलता देने वाले आसन (Relaxing Postures) – तनाव और थकान दूर करने के लिए।
o शवासन, मकरासन।
3. संतुलन और शक्ति बढ़ाने वाले आसन (Balancing & Strengthening Postures)
o ताड़ासन, वृक्षासन, वीरभद्रासन, धनुरासन।
4. उदर और मेरुदंड के लिए आसन (Spinal & Abdominal Postures)
o भुजंगासन, हलासन, सर्वांगासन, पश्चिमोत्तानासन।
आसन के लाभ (Impact of Asana)
✅ शारीरिक लाभ: शरीर को लचीला, मजबूत और ऊर्जावान बनाता है।
✅ मानसिक लाभ: तनाव, चिंता और अवसाद को कम करता है।
✅ आध्यात्मिक लाभ: ध्यान और समाधि के लिए मन को तैयार करता है।
✅ रोग निवारण: हृदय रोग, मधुमेह, मोटापा, उच्च रक्तचाप, कमर दर्द आदि में सहायक।
2️⃣ प्राणायाम (Pranayama) – श्वास नियंत्रण एवं प्राण शक्ति
प्राणायाम का अर्थ और परिभाषा
🔹 "प्राण" का अर्थ है जीवन शक्ति (Vital Energy)।
🔹 "आयाम" का अर्थ है नियंत्रण या विस्तार।
🔹 प्राणायाम द्वारा श्वास को नियंत्रित करके शरीर और मन की ऊर्जा को संतुलित किया जाता है।
प्राणायाम के प्रकार (Types of Pranayama)
1. नाड़ी शोधन प्राणायाम (Anulom-Vilom) – शरीर की नाड़ियों को शुद्ध करता है।
2. भस्त्रिका प्राणायाम – श्वसन शक्ति और ऑक्सीजन स्तर को बढ़ाता है।
3. कपालभाति प्राणायाम – मस्तिष्क और शरीर की शुद्धि करता है।
4. भ्रामरी प्राणायाम – मानसिक तनाव और अनिद्रा को दूर करता है।
5. उज्जायी प्राणायाम – फेफड़ों की क्षमता बढ़ाता है।
6. शीतली और शीतकारी प्राणायाम – शरीर को ठंडा करता है और पित्त दोष को संतुलित करता है।
प्राणायाम के लाभ (Impact of Pranayama)
✅ शारीरिक लाभ: ऑक्सीजन की आपूर्ति को बढ़ाता है, फेफड़ों की क्षमता में सुधार करता है।
✅ मानसिक लाभ: एकाग्रता बढ़ाता है, तनाव और चिंता को कम करता है।
✅ आध्यात्मिक लाभ: ध्यान और समाधि की गहराई को बढ़ाता है।
✅ रोग निवारण: हृदय रोग, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, उच्च रक्तचाप, मानसिक विकारों में सहायक।
🔹 निष्कर्ष (Conclusion)
✅ आसन शरीर को स्थिर, लचीला और ऊर्जावान बनाता है।
✅ प्राणायाम मानसिक शांति और प्राण शक्ति को जागृत करता है।
✅ दोनों का अभ्यास शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को मजबूत करता है।
✅ नियमित योग साधना से स्वास्थ्य, दीर्घायु और आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है।
🚩 "नियमित आसन और प्राणायाम का अभ्यास करें और संपूर्ण स्वास्थ्य प्राप्त करें!" 🙏
एक-तत्त्व अभ्यास (Ek-Tatwa Abhyasa)
🔹 परिचय (Introduction)
"एक-तत्त्व अभ्यास" का उल्लेख योग में मानसिक स्थिरता और ध्यान को गहन बनाने के उपाय के रूप में किया गया है। यह अभ्यास चित्त की चंचलता को कम करने और एकाग्रता को बढ़ाने में सहायक है।
"मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्॥" (योगसूत्र 1.33)
अर्थ: मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा के भावों को विकसित करने से चित्त की शुद्धि होती है।
"एतेन सर्वे ज्ञेयाः। एकतत्त्वाभ्यासस्तु तद्विरोधिषूदासीनता॥" (योगसूत्र 1.32)
अर्थ: एक-तत्त्व पर अभ्यास करने से मन के सभी विक्षेप समाप्त हो जाते हैं।
🔹 एक-तत्त्व अभ्यास का अर्थ (Meaning of Ek-Tatwa Abhyasa)
"एक-तत्त्व" का अर्थ है एक विषय या वस्तु पर ध्यान केंद्रित करना।
"अभ्यास" का अर्थ है लगातार अभ्यास करना।
इसका तात्पर्य यह है कि किसी एक चीज पर पूरी निष्ठा से ध्यान लगाना, जिससे मन की चंचलता समाप्त हो और एकाग्रता बढ़े।
🔹 एक-तत्त्व अभ्यास के प्रकार (Types of Ek-Tatwa Abhyasa)
1. ईश्वर पर ध्यान (Ishwar Pranidhana) – भगवान, मंत्र या किसी दिव्य शक्ति का ध्यान।
2. सांसों पर ध्यान (Breath Awareness) – श्वास-प्रश्वास को महसूस करना और उसी पर ध्यान केंद्रित करना।
3. मंत्र जाप (Mantra Chanting) – "ओम" या अन्य किसी मंत्र का निरंतर जप।
4. ध्यान (Meditation on an Object) – किसी विशेष वस्तु, जैसे दीपक की लौ या किसी बिंदु पर ध्यान केंद्रित करना।
5. स्वरूप चिंतन (Self-Inquiry) – "मैं कौन हूँ?" इस पर विचार करना।
🔹 एक-तत्त्व अभ्यास के लाभ (Benefits of Ek-Tatwa Abhyasa)
✅ मानसिक स्थिरता – मन शांत और स्थिर होता है।
✅ एकाग्रता में वृद्धि – ध्यान और स्मरण शक्ति बढ़ती है।
✅ चित्त विक्षेपों का नाश – अनावश्यक विचारों की संख्या कम होती है।
✅ आध्यात्मिक उन्नति – ध्यान और समाधि की ओर बढ़ने में सहायक।
✅ तनाव और चिंता से मुक्ति – मनोवैज्ञानिक शांति प्राप्त होती है।
🔹 निष्कर्ष (Conclusion)
✅ एक-तत्त्व अभ्यास मानसिक एकाग्रता बढ़ाने और ध्यान को स्थिर करने का एक प्रभावी साधन है।
✅ यह योग साधना में प्रगति के लिए अत्यंत आवश्यक है।
✅ निरंतर अभ्यास से व्यक्ति अविचलित मन, आंतरिक शांति और आत्मज्ञान को प्राप्त कर सकता है।
🚩 "एक तत्त्व पर ध्यान केंद्रित करें और चित्त की शुद्धि प्राप्त करें!" 🙏
📜 ईश्वर का सिद्धांत (Concept of Ishwara in Yoga Sutras)
पतंजलि योगसूत्र में ईश्वर (Ishwara) को विशेष पुरुष (विशेष आत्मा) के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो अविकारी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, और कर्मों से अतीत है। योग में ईश्वर भक्ति (ईश्वर प्रणिधान) को समाधि प्राप्ति का एक प्रभावी साधन बताया गया है।
🔹 ईश्वर का स्वरूप (Nature of Ishwara)
1. पतंजलि योगसूत्र में ईश्वर की परिभाषा
"क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः॥" (योगसूत्र 1.24)
अर्थ: ईश्वर वह विशेष पुरुष (विशिष्ट आत्मा) है, जो क्लेश, कर्म, उसके फल और संस्कारों से सर्वथा मुक्त है।
✦ यह सूत्र बताता है कि ईश्वर सामान्य जीवों की तरह कर्म और उसके बंधनों से प्रभावित नहीं होते।
2. ईश्वर ज्ञान और गुरु का आदर्श
"स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्॥" (योगसूत्र 1.26)
अर्थ: ईश्वर सभी प्राचीन गुरुओं के भी गुरु हैं क्योंकि वे समय की सीमा से परे हैं।
✦ यह दर्शाता है कि ईश्वर शाश्वत ज्ञान के स्रोत हैं और सभी ऋषियों एवं योगियों के आदिगुरु हैं।
3. प्रणव (ओंकार) द्वारा ईश्वर का ध्यान
"तस्य वाचकः प्रणवः॥" (योगसूत्र 1.27)
अर्थ: ईश्वर का प्रतीक "ॐ" है।
✦ योग साधना में "ॐ" का जप और ध्यान ईश्वर से जुड़ने का सर्वोत्तम साधन है।
"तज्जपस्तदर्थभावनम्॥" (योगसूत्र 1.28)
अर्थ: इस प्रणव (ॐ) का जप और उसके अर्थ का ध्यान करने से ईश्वर का साक्षात्कार होता है।
🔹 ईश्वर प्रणिधान (Surrender to Ishwara) – समाधि प्राप्ति का साधन
"ईश्वरप्रणिधानाद्वा॥" (योगसूत्र 1.23)
अर्थ: ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण से समाधि प्राप्त हो सकती है।
✦ यह योग मार्ग में भक्ति (ईश्वर के प्रति समर्पण) को भी महत्वपूर्ण साधन के रूप में प्रस्तुत करता है।
🔹 ईश्वर के महत्व और लाभ (Significance and Benefits of Ishwara in Yoga)
✅ क्लेशों (दुःखों) से मुक्ति – ईश्वर को समर्पण करने से मानसिक शांति मिलती है।
✅ कर्म बंधन से स्वतंत्रता – ईश्वर का ध्यान करने से व्यक्ति के कर्मों का भार हल्का होता है।
✅ समाधि की प्राप्ति – ईश्वर में लीन होने से ध्यान और समाधि में गहराई आती है।
✅ अहंकार का नाश – ईश्वर प्रणिधान से अहंकार समाप्त होता है और शुद्ध चित्त उत्पन्न होता है।
🔹 निष्कर्ष (Conclusion)
📌 पतंजलि के अनुसार, ईश्वर एक विशेष पुरुष हैं, जो सदा मुक्त, सर्वज्ञ और गुरु हैं।
📌 ॐ (प्रणव) उनका प्रतीक है, और उसका जप ध्यान के लिए महत्वपूर्ण है।
📌 ईश्वर प्रणिधान से चित्त शुद्ध होता है और समाधि की प्राप्ति में सहायता मिलती है।
🚩 "ईश्वर के प्रति समर्पण करें और आत्मा की शुद्धि प्राप्त करें!" 🙏
Unit-IV: PYS- Concept & Application-III
अंतरंग योग का مفهوم
अंतरंग योग (अन्तरङ्ग योग) योग का वह आंतरिक पक्ष है जो आत्मचिंतन, ध्यान और समाधि की ओर ले जाता है। यह पतंजलि के अष्टांग योग के अंतिम तीन चरणों को सम्मिलित करता है:
१. धारणा (Concentration) – एकाग्रता
धारणा का अर्थ है मन को एक ही वस्तु, मंत्र, या ध्यान के केंद्र बिंदु पर स्थिर करना। यह बाह्य (बहि:रंग) अभ्यासों जैसे आसन और प्राणायाम से आंतरिक जागरूकता की ओर जाने का चरण है। इससे ध्यान केंद्रित करने की शक्ति बढ़ती है और मानसिक स्थिरता प्राप्त होती है।
२. ध्यान (Meditation) – ध्यान साधना
ध्यान वह अवस्था है जिसमें मन पूर्ण रूप से ध्यान के केंद्र बिंदु में लीन हो जाता है। यह ध्यान की गहरी अवस्था है जिसमें व्यक्ति की चेतना शांत और स्पष्ट हो जाती है।
३. समाधि (Ultimate Absorption) – परम चेतना
समाधि योग का अंतिम लक्ष्य है, जहाँ साधक आत्मबोध और दिव्य अनुभूति प्राप्त करता है। इस अवस्था में अहंकार समाप्त हो जाता है और केवल शुद्ध चेतना रह जाती है। समाधि के विभिन्न स्तर होते हैं, जैसे सविकल्प समाधि (जिसमें कुछ चेतना बनी रहती है) और निर्विकल्प समाधि (जो पूर्ण आत्म-अनुभूति की अवस्था होती है)।
अंतरंग योग का महत्व
· यह आत्मशुद्धि और आत्म-साक्षात्कार का मार्ग है।
· मानसिक और भावनात्मक उतार-चढ़ाव से मुक्ति दिलाने में सहायक होता है।
· गहरी आध्यात्मिक उन्नति और उच्च चेतना की अवस्था तक पहुँचने में सहायक होता है।
· मोक्ष (मुक्ति) की प्राप्ति में सहायक होता है।
अंतरंग योग बाहरी अभ्यासों से आंतरिक साधना की ओर जाने की प्रक्रिया है, जहाँ साधक शारीरिक अनुशासन से मानसिक और आध्यात्मिक परिपूर्णता की ओर बढ़ता है। क्या आप इस विषय पर किसी विशेष ग्रंथ या आधुनिक संदर्भों को भी सम्मिलित करना चाहेंगे?
समाधि: संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात समाधि
योग दर्शन के अनुसार, समाधि योग की उच्चतम अवस्था है, जिसमें साधक आत्मबोध और परम चेतना को प्राप्त करता है। पतंजलि मुनि ने समाधि को दो भागों में विभाजित किया है:
1. संप्रज्ञात समाधि (Samprajnata Samadhi)
2. असंप्रज्ञात समाधि (Asamprajnata Samadhi)
1. संप्रज्ञात समाधि (Samprajnata Samadhi)
संप्रज्ञात समाधि को "सविकल्प समाधि" भी कहा जाता है। यह वह अवस्था है जिसमें साधक को अभी भी कुछ न कुछ बोध (ज्ञान) बना रहता है। इसमें चित्त वृत्तियाँ सक्रिय रहती हैं, लेकिन वे पूर्ण रूप से नियंत्रित होती हैं।
संप्रज्ञात समाधि के चार प्रकार:
1. सवितर्क (Savitaraka) समाधि – इसमें मन किसी स्थूल वस्तु (जैसे मूर्ति, मंत्र, या किसी प्रतीक) पर केंद्रित रहता है।
2. निर्वितर्क (Nirvitarka) समाधि – इसमें ध्यान की वस्तु रह जाती है, लेकिन उसका नाम और रूप मिट जाता है, केवल अनुभूति शेष रहती है।
3. सविचार (Savichara) समाधि – इसमें ध्यान किसी सूक्ष्म तत्व (जैसे पंचतत्व, सूक्ष्म शरीर, या तत्व ज्ञान) पर केंद्रित रहता है।
4. निर्विचार (Nirvichara) समाधि – इसमें केवल शुद्ध चेतना का अनुभव रहता है, कोई विचार या भावना नहीं रहती।
संप्रज्ञात समाधि में साधक अभी भी द्वैत (ज्ञान और ज्ञेय) के स्तर पर रहता है, अर्थात उसे यह अनुभव रहता है कि "मैं ध्यान कर रहा हूँ।"
2. असंप्रज्ञात समाधि (Asamprajnata Samadhi)
असंप्रज्ञात समाधि को "निर्विकल्प समाधि" भी कहा जाता है। यह समाधि का उच्चतर स्तर है, जिसमें सभी चित्त वृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं, और केवल शुद्ध आत्मा या ब्रह्म की अनुभूति होती है।
असंप्रज्ञात समाधि के लक्षण:
· इसमें कोई विचार, प्रतीक, ध्वनि, या ध्यान का आधार नहीं रहता।
· अहंकार, स्मृति, और बोध समाप्त हो जाते हैं।
· केवल शुद्ध चैतन्य (Pure Consciousness) शेष रहता है।
· यह कैवल्य (मोक्ष) की ओर ले जाती है।
असंप्रज्ञात समाधि में साधक अपने अस्तित्व और ब्रह्म के बीच कोई भेदभाव नहीं करता। वह केवल ब्रह्म की स्थिति में स्थित हो जाता है।
संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात समाधि में अंतर
निष्कर्ष
संप्रज्ञात समाधि ध्यान की एक विकसित अवस्था है, जिसमें साधक ज्ञान के विभिन्न स्तरों से गुजरता है। असंप्रज्ञात समाधि में पहुँचने पर, साधक सभी मानसिक अवस्थाओं से मुक्त होकर केवल ब्रह्म या आत्मा में स्थित हो जाता है।
पतंजलि के अष्टांग योग में समाधि का यही अंतिम लक्ष्य है—अहंकार और द्वैत से परे जाकर आत्मा का परमात्मा से मिलन।
क्या आप इसे और अधिक गहराई से समझना चाहते हैं या किसी विशेष संदर्भ ग्रंथ से इसकी व्याख्या चाहते हैं?
ऋतंभरा प्रज्ञा (Ritambhara Prajna) और विवेक ख्याति (Viveka Khyati)
योग दर्शन में ज्ञान (प्रज्ञा) की सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त करने के लिए विभिन्न मानसिक और आध्यात्मिक अवस्थाओं का वर्णन किया गया है। इनमें ऋतंभरा प्रज्ञा और विवेक ख्याति विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं, जो समाधि और आत्म-साक्षात्कार के मार्ग में सहायक होते हैं।
1. ऋतंभरा प्रज्ञा (Ritambhara Prajna) – सत्यधारित प्रज्ञा
अर्थ एवं परिभाषा
संस्कृत में "ऋत" का अर्थ होता है "सत्य" और "ंभरा" का अर्थ होता है "धारण करने वाली"।
इसलिए ऋतंभरा प्रज्ञा का अर्थ है "सत्य को धारण करने वाली बुद्धि या ज्ञान"। यह ज्ञान किसी बाहरी प्रमाण या तर्क-वितर्क पर निर्भर नहीं करता, बल्कि यह ध्यान की गहन अवस्था में स्वयं उत्पन्न होता है।
ऋतंभरा प्रज्ञा की विशेषताएँ
· यह सत्य (ऋत) पर आधारित होती है और कभी परिवर्तित नहीं होती।
· यह तर्क, अनुमान या अन्य बाहरी स्रोतों से नहीं, बल्कि सीधे आत्मसाक्षात्कार से प्राप्त होती है।
· इसमें ज्ञान अचूक होता है और किसी संदेह या भ्रम की स्थिति नहीं रहती।
· यह समाधि (विशेषतः निर्विचार समाधि) की अवस्था में प्रकट होती है।
पतंजलि योगसूत्र में उल्लेख
पतंजलि योगसूत्र (1.48) में कहा गया है:
"ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा"
अर्थात, जब साधक ध्यान और समाधि की अवस्था में पूर्ण रूप से स्थित हो जाता है, तब उसे ऋतंभरा प्रज्ञा की प्राप्ति होती है।
सामान्य ज्ञान (सामान्य बुद्धि) और ऋतंभरा प्रज्ञा में अंतर
2. विवेक ख्याति (Viveka Khyati) – परम भेदबुद्धि
अर्थ एवं परिभाषा
संस्कृत में "विवेक" का अर्थ है "भेदबुद्धि" और "ख्याति" का अर्थ है "प्रकाश या ज्ञान"।
अतः विवेक ख्याति का अर्थ है "सत्य और असत्य, आत्मा और अनात्मा, शाश्वत और नश्वर के बीच स्पष्ट भेद करने की क्षमता"।
विवेक ख्याति की विशेषताएँ
· यह व्यक्ति को आत्मा (पुरुष) और प्रकृति (प्रकृति के तत्व) के बीच भेद करने में सक्षम बनाती है।
· यह साधक को इस सत्य का अनुभव कराती है कि "मैं शरीर या मन नहीं, बल्कि शुद्ध आत्मा हूँ।"
· जब विवेक ख्याति पूर्ण रूप से विकसित हो जाती है, तो व्यक्ति संसार के मोह और अज्ञान से मुक्त हो जाता है।
· यह मोक्ष (कैवल्य) की ओर ले जाती है।
पतंजलि योगसूत्र में उल्लेख
पतंजलि योगसूत्र (2.26) में कहा गया है:
"विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः"
अर्थात, विवेक ख्याति (सत्य-असत्य का भेद करने की योग्यता) अडिग और अविचलित हो जाए, तो यही मोक्ष का उपाय है।
विवेक ख्याति के चरण
1. यथार्थ बोध – सत्य और असत्य का प्रारंभिक ज्ञान।
2. गहरी समझ – अभ्यास और ध्यान के माध्यम से आत्मा और अनात्मा के बीच भेद करने की योग्यता।
3. निरंतर जागरूकता – संसार के सभी अनुभवों में इस विवेक को बनाए रखना।
4. पूर्ण आत्मबोध – केवल आत्मा में स्थित हो जाना (कैवल्य अवस्था)।
सामान्य बुद्धि और विवेक ख्याति में अंतर
ऋतंभरा प्रज्ञा और विवेक ख्याति में अंतर
· ऋतंभरा प्रज्ञा समाधि में प्राप्त होने वाला उच्चतम सत्य है, जो योगी को अद्वितीय और त्रुटिहीन ज्ञान प्रदान करता है।
· विवेक ख्याति वह शक्ति है, जो साधक को आत्मा और अनात्मा के बीच भेद करने की क्षमता देती है, जिससे वह मोक्ष की ओर बढ़ता है।
इन दोनों अवस्थाओं को प्राप्त करने के लिए ध्यान, समाधि, स्वाध्याय और वैराग्य का अभ्यास आवश्यक है। यही कारण है कि पतंजलि योगदर्शन में समाधि और विवेक ख्याति को आत्म-साक्षात्कार के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है।
क्या आप इसे और गहराई से समझना चाहते हैं या किसी विशेष ग्रंथ से संदर्भ जोड़ना चाहेंगे?
संयम से प्राप्त सिद्धियाँ (Siddhis Related to Sanyama)
पतंजलि योगसूत्र में संयम (Sanyama) को योग का उच्चतम अभ्यास माना गया है। संयम का अर्थ है "धारणा, ध्यान और समाधि" का एक साथ अभ्यास करना। जब कोई साधक किसी विशेष विषय या वस्तु पर संयम करता है, तो उसे उस विषय से संबंधित विशेष सिद्धियाँ (अलौकिक शक्तियाँ) प्राप्त होती हैं।
पतंजलि मुनि ने योगसूत्र के विभूति पाद (तीसरे अध्याय) में इन सिद्धियों का विस्तार से वर्णन किया है।
संयम से प्राप्त प्रमुख सिद्धियाँ
1. त्रिकालज्ञान (भूत, भविष्य और वर्तमान का ज्ञान)
(योगसूत्र 3.16)
➡ जब साधक समय (काल) के स्वरूप पर संयम करता है, तो उसे भूत, भविष्य और वर्तमान का संपूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
2. पूर्व जन्मों का ज्ञान (पूर्वजन्म स्मरण सिद्धि)
(योगसूत्र 3.18)
➡ जब साधक अपने संस्कारों (स्मृतियों) पर संयम करता है, तो उसे अपने पूर्व जन्मों की याद आ जाती है।
3. दूसरों के चित्त को पढ़ने की शक्ति (परचित्तज्ञान सिद्धि)
(योगसूत्र 3.19-20)
➡ जब साधक किसी अन्य व्यक्ति के चित्त पर संयम करता है, तो वह उसके विचारों को पढ़ सकता है।
4. अदृश्य होने की शक्ति (अन्तर्धान सिद्धि)
(योगसूत्र 3.21)
➡ जब योगी अपने शरीर के रूप (रूपतत्त्व) पर संयम करता है, तो वह दूसरों के लिए अदृश्य हो सकता है।
5. शरीर को हल्का या भारी करने की शक्ति (लघिमा और गरिमा सिद्धि)
(योगसूत्र 3.43)
➡ जब योगी अपने शरीर के गुणों पर संयम करता है, तो वह अपने शरीर को हल्का (हवा में उड़ने योग्य) या भारी (स्थिर और अचल) बना सकता है।
6. जल, अग्नि, वायु आदि से प्रभावित न होने की शक्ति
(योगसूत्र 3.40)
➡ जब योगी अपनी प्राणशक्ति पर संयम करता है, तो वह जल में डूबता नहीं, अग्नि उसे जला नहीं सकती, और वह वायु के वेग से अडिग रहता है।
7. भूख-प्यास पर नियंत्रण (काय संपत्तिः सिद्धि)
(योगसूत्र 3.30)
➡ जब साधक अपने उदान वायु पर संयम करता है, तो वह भूख और प्यास से मुक्त हो सकता है।
8. किसी भी ध्वनि को सुनने की शक्ति (दिव्यश्रवण सिद्धि)
(योगसूत्र 3.41)
➡ जब साधक आकाश तत्त्व पर संयम करता है, तो वह कहीं भी होने वाली ध्वनि को सुन सकता है।
9. किसी भी स्थान पर जाने की शक्ति (विचरत्व सिद्धि)
(योगसूत्र 3.42)
➡ जब योगी वायु तत्त्व पर संयम करता है, तो वह किसी भी स्थान पर क्षणभर में जा सकता है।
10. इच्छानुसार शरीर धारण करने की शक्ति (कामरूप सिद्धि)
(योगसूत्र 3.45)
➡ जब साधक अपने शरीर की प्रकृति पर संयम करता है, तो वह किसी भी रूप को धारण कर सकता है।
11. संसार के रहस्यों को जानने की शक्ति (प्राकृतिक तत्वों का ज्ञान)
(योगसूत्र 3.47-48)
➡ जब योगी पंचमहाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) पर संयम करता है, तो उसे प्रकृति के सभी रहस्यों का ज्ञान हो जाता है।
12. ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति (कैवल्य सिद्धि)
(योगसूत्र 3.50-51)
➡ जब साधक सत्त्व और पुरुष के भेद पर संयम करता है, तो उसे आत्मज्ञान (ब्रह्मज्ञान) की प्राप्ति होती है और वह मोक्ष को प्राप्त करता है।
संयम और सिद्धियों का महत्व
पतंजलि मुनि ने यह स्पष्ट किया है कि ये सिद्धियाँ योग साधना का अंतिम लक्ष्य नहीं हैं।
➡ योगसूत्र 3.37 में कहा गया है:
"ते समाधौ उपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः।"
अर्थात, सिद्धियाँ साधक के लिए ध्यान में बाधा भी बन सकती हैं। यदि साधक इनमें ही उलझ जाता है, तो वह मोक्ष से दूर हो सकता है।
अतः, संयम का सर्वोच्च लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष की प्राप्ति है, न कि केवल चमत्कारी शक्तियों का प्रदर्शन।
· संयम के अभ्यास से योगी को अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त होती हैं।
· इन सिद्धियों का उद्देश्य आत्मज्ञान और मोक्ष की ओर अग्रसर होना है, न कि उनका दुरुपयोग करना।
· पतंजलि योगदर्शन में इन्हें आत्मा की पूर्ण स्वतंत्रता (कैवल्य) तक पहुँचने का माध्यम माना गया है।
क्या आप किसी विशेष सिद्धि के बारे में अधिक विस्तार से जानना चाहेंगे? 😊
कैवल्य (Kaivalya) – मोक्ष की अंतिम अवस्था
योग दर्शन में कैवल्य को अंतिम लक्ष्य माना गया है। पतंजलि योगसूत्र के कैवल्यपाद (चौथे अध्याय) में इसे आत्मा की पूर्ण स्वतंत्रता के रूप में वर्णित किया गया है।
1. कैवल्य का अर्थ
संस्कृत में:
· "कैवल्य" शब्द "केवल" से बना है, जिसका अर्थ है – अकेलापन, शुद्धता, अद्वितीय स्थिति।
· इसका सीधा अर्थ है "पूर्ण स्वतंत्रता", जिसमें आत्मा (पुरुष) प्रकृति (प्रकृति) से मुक्त होकर अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो जाती है।
पतंजलि योगसूत्र में परिभाषा (योगसूत्र 4.34)
"पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्व-रूप-प्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरेति।।"
🔹 अर्थ: जब प्रकृति के गुण (सत्त्व, रज, तम) अपना कार्य करना बंद कर देते हैं और आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो जाती है, तब इसे *कैवल्य (मोक्ष) कहा जाता है।
2. कैवल्य की अवस्था
कैवल्य प्राप्त करने वाला योगी:
✅ जन्म-मृत्यु के चक्र (संसार) से मुक्त हो जाता है।
✅ सुख-दुःख, मोह-माया से परे हो जाता है।
✅ केवल आत्म-साक्षात्कार में स्थित रहता है।
✅ प्रकृति के गुण (सत्त्व, रज, तम) उसे प्रभावित नहीं करते।
✅ पूर्ण आनंद (परमानंद) में स्थित होता है।
कैवल्य और मोक्ष में अंतर
कुछ दार्शनिक मतों में मोक्ष और कैवल्य को समान माना गया है, लेकिन योग दर्शन के अनुसार:
3. कैवल्य प्राप्त करने का मार्ग
पतंजलि के अनुसार अष्टांग योग ही कैवल्य प्राप्ति का मार्ग है:
1. यम – नैतिक आचरण (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह)
2. नियम – आत्म-अनुशासन (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान)
3. आसन – शरीर और मन की स्थिरता
4. प्राणायाम – प्राण ऊर्जा का नियंत्रण
5. प्रत्याहार – इंद्रियों को बाहरी विषयों से हटाना
6. धारणा – ध्यान के लिए मन को एकाग्र करना
7. ध्यान – निरंतर एक ही विषय पर ध्यान
8. समाधि – पूर्ण ध्यान की अवस्था
➡ जब साधक निर्विज्ञान समाधि तक पहुँच जाता है, तब उसे कैवल्य प्राप्त होता है।
4. कैवल्य की प्राप्ति के संकेत
पतंजलि योगसूत्र (4.30-32) में बताया गया है कि जब योगी कैवल्य प्राप्त करता है, तब:
✅ उसे कोई कर्मबंधन नहीं रहता।
✅ प्रकृति के गुणों का प्रभाव समाप्त हो जाता है।
✅ चित्त (मन) पूर्ण रूप से शांत हो जाता है।
✅ आत्मा किसी भी जन्म-मरण चक्र में नहीं आता।
5. क्या कैवल्य प्राप्ति संभव है?
हाँ, लेकिन इसके लिए अत्यंत कठोर साधना और वैराग्य की आवश्यकता है।
कैवल्य प्राप्त योगियों के उदाहरण:
· महर्षि पतंजलि
· महर्षि वशिष्ठ
· महर्षि कपिल
· भगवान महावीर
· भगवान बुद्ध
· कैवल्य का अर्थ है आत्मा की पूर्ण स्वतंत्रता।
· यह प्रकृति (माया) से मुक्ति की अवस्था है।
· इसे प्राप्त करने के लिए अष्टांग योग और समाधि का अभ्यास आवश्यक है।
· कैवल्य प्राप्त करने के बाद आत्मा जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाती है।
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